प्रस्तावना:
भारत देश विभन्न संस्कृतियों और कला कर्मों से भरा पड़ा है। अनेकों भाषाएँ और बोलियां, विभिन्न रंग-रूप, विभिन्न जातियां, उप-जातियां और प्रकृति से ओतप्रोत कई सभ्यताओं ने यहीं जन्म लिया और अपने अस्तित्व में आयीं। यहाँ की आदिम कला और संस्कृति अत्यंत प्रभावशाली और समृद्ध रही है। मनुष्य जब से भी इस पृथ्वी पर आया होगा तभी से वह सृजनशील रहा होगा। प्रकृति के आँचल में जो भी उसे मिलता है वह उस पर विचार करता है,उसकी कल्पनाएं जन्म लेती हैं, कई बिम्ब-प्रतिबिम्ब उसके मस्तिष्क में चलते हैं और वह उन बिम्बों और प्रतिबिम्बों में नए-नए आकार गढ़ता है। कदाचित इसी तरह संस्कृति का जन्म होता है। भारत में जितने भी गुफा कालीन चित्र हैं, मूर्तियां हैं, शिल्प हैं वे सभी अद्भुद सांस्कृतिक वैभव का सबूत हैं। इसी तरह की अनादि कला परम्परा या संस्कृति के दर्शन हमें आदिवासियों की संस्कृति में मिलते हैं। इस सृष्टि में कई आदिवासी जनजातियां और उनकी उपजातियां बसती हैं, जिनका अपना गौरवशाली इतिहास है, सांस्कृतिक परम्परा है। यहाँ हम ऐसी ही गौरवशाली और अपनी तरह से अनोखी सांस्कृतिक परम्परा के वाहक भील आदिवासियों पर चर्चा करेंगें। यह जनजाति पूरे भारत में गोंड और संथालों के बाद बहुसंख्यक मानी जाती है।
जनजातियों की सांस्कृतिक रूप से अपनी एक विशेष पहचान होती है। प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से भी प्रकृति के प्रति आस्था और विश्वास के रूप में प्रकृति की उपासना के उदाहरण मिलते हैं।
सूर्य-चन्द्रमा, पेड़-पौधे, जल, वायु, अग्नि की पूजा अस्तित्व, मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा आदि की संस्कृति में समान रूप से मिलता है। जिसका स्पष्ट संकेत है कि प्राचीन मानव की आराध्य संस्कृति का मूल, प्रकृति पूजा रहा है और हमें वर्तमान में भी प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति-पूजा का अस्तित्व दिखाई पड़ता है। प्रागैतिहासिक काल से आज तक उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर अनेक बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों ने कला विकास में आस्था, अनुष्ठान एवं अभिव्यक्ति की प्रमुख बिंदु के रूप में व्याख्या दी है। लोक-कला का मूल मंगल पर आधारित है यह सर्वमान्य सत्य है। मंगल भावना से ही अनेक चित्रों, शिल्पों, मूर्तियों, भित्ति-चित्रों इत्यादि का निर्माण लोक-कला संसार में होता आया है। जिसमें अभिप्रायों और प्रतीकों का अपना महत्व है। हम यहाँ इस महान आदिवासी जनजाति- भील जनजाति और उनकी कला-यात्रा एवं सांस्कृतिक विरासत पर संक्षेप में प्रकाश डालने का प्रयास कर रहे हैं।

भील समुदाय:
भील, मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में सबसे बड़ी जनजातियों में से एक हैं। भीली कला-संस्कृति व परम्परा भारत की जनजातीय पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्राचीनतम साहित्य में खासतौर पर रामायण और महाभारत में भीलों की चर्चा देखने को मिलती है। शबरी, घटोत्कच और एकलव्य इसके उदाहरण हैं। भील सिर्फ कृषक नहीं रहे वे शासक भी रहे हैं, योद्धा भी रहे हैं। हल्दी-घाटी में महाराणा प्रताप के साथ भील भी लड़े थे। यह जनजाति वीर जनजाति रही है, इन्होने राजपूत और मराठों का मान बढ़ाया है, उनकी और उनके राज्य की रक्षा की है। उस समय भीलों को उच्च-पद और विशेष अधिकार भी प्राप्त थे। भील जनजाति को भारत का धनुष-पुरुष कहा जाता है। भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ शब्द "वील" से हुई है जिसका अर्थ है कमान या धनुष! भील जनजाति भारत के विस्तृत भू-भाग में बसे हुए हैं। प्राचीन समय में यह लोग मिस्र से लंका तक फैले हुए थे। भीलों की अधिक आबादी मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में है। भील आँध्रप्रदेश, कर्नाटक, त्रिपुरा, पश्चिम-बंगाल और उड़ीसा समेत कई राज्यों में बसे हुए हैं। वैसे तो भीलों की उत्पत्ति राजस्थान में उदयपुर के निकट स्थित छोटी-ऊंदरी और बड़ी-ऊंदरी स्थान से मानी जाती है, लेकिन इसके ठोस प्रमाण नहीं हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान के भीलों के बीच भी देवी-देवताओं, गानों, नृत्यों और कहानियों के सन्दर्भों में थोड़ी भिन्नताएं हैं।
भीलों की जातियां और उपजातियां:
भारत के हिन्दू धर्म की तरह ही भील समुदाय कई जातियों और उप जातियों में बंटा हुआ है। कुछ प्रमुख जातियां और उपजातियां निम्नानुसार हैं -
बॉरी - यह भील जनजाति पश्चिम बंगाल , बंगाल में निवास करती है , इस जाति की उपजातियां है ।
बर्दा - बर्दा समूह गुजरात , महाराष्ट्र और कर्नाटक में निवास करता है । यह भीलों का समूह है ।
गरासिया - गरासिया मुख्यत राजस्थान में बसते है , यह भीलों की एक शाखा है ।
ढोली भील - भील उपशाखा
डुंगरी भील -
डुंगरी गरासिया
भील पटेलिया -
रावल भील -
तड़वी भील - तडवी दरसअल भील मुखिया को कहते है , तडवी भील मुख्यता महाराष्ट्र में निवास करते है ।
भागलिया
भिलाला - भिलाला , भील आदिवासियों की उपशाखा है ।
पावरा - यह भील जनजाति की उपशाखा गुजरात में निवास करती है ।
वासरी या वासेव
वसावा - गुजरात के भील
महाराष्ट्र
भील मावची
कोतवाल उनके मुख्य उप-समूह हैं ।
खादिम जाति - यह भील जाति राजस्थान के अजमेर में निवास करती हैं ।
भील-संस्कृति, जीवन और आस्थाएं:
वैसे तो कोई भी आदिवासी जनजाति हो उनका जीवन प्रकृति से जुड़ा होता है और वे अपनी परम्परागत आदिम संस्कृति से निकटता बनाये रखते हैं। यहाँ हम मध्यप्रदेश में भील-समुदाय के जीवन-यापन, रहन-सहन, तीज-त्यौहारों, धार्मिक कर्मों, गीतों, नृत्यों और उनके जन्म तथा विवाह से जुड़ी प्रथाओं पर चर्चा करने के साथ उनकी कला-यात्रा के विभिन्न पड़ावों से रूबरू होने की कोशिश भी करेंगे।
आहार:
भील शाकाहार और माँसाहार दोनों का सेवन करते हैं। वे अपने उपयोग के शाक-सब्ज़ियां और अनाज अपने खेतों में उगाते हैं, उन्हें मक्का, प्याज़, लहसुन और मिर्च के साथ अपने बनाए हथियारों से शिकार करके मांस खाना भी पसंद है।
देवी-देवता:
भीलों की आस्था के केंद्र उनके देवी-देवता हैं। जहाँ गोंड आदिवासी पेड़ों, जंगल और प्रकृति में ही अपने देवी-देवताओं का स्वरूप देखते हैं, उसके विपरीत भील समुदाय अपने अनेक देवी-देवताओं के मूर्तरूप गढ़ता है। भील समुदाय जहाँ रहता है वहीँ अपने स्थानीय देवताओं की स्थापना करता है। जिससे कि वे सभी आपदाओं से सुरक्षित रह सकें और जीवन में स्वास्थ्य एवं समृद्धि बनी रहे। बाबा-देव, टोटम देव, बड़ा-देव, इंद्र-देव, महादेव, आमझा-माता, करकुलिया-देव, गोपाल-देव, बाग-देव (शेर) आदि अनेक देवी-देवता हैं जो तीज-त्यौहार, शादी-विवाह, युद्ध, आपदा आदि विभिन्न अवसरों पर भीलों द्वारा पूजे जाते हैं।
जन्म एवं विवाह आदि संस्कार:
भील समुदाय में जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो उसे रिवाज के अनुसार भील के सांस्कृतिक संघ में शामिल किया जाता है। नवजात बच्चे को मक्के के ढेर पर लिटाया जाता है। चचेरी बहन उसे उठाती है और बच्चे को माता को तब तक सौंपने से इनकार करती है जब तक कि उसे उपहार न मिल जाता हो। जन्म के तुरंत बाद अनाज का स्पर्श करना शुभ होता है, उसी तरह नवजात के कानों में हंसी की आवाज पहुंचाना शुभ माना जाता है।
भीलों में लड़के के जन्म पर थाली बजाने का और लड़की के जन्म पर सूपड़ा बजाने की प्रथा है। आधुनिक समय में लड़कियों के जन्म पर भी थाली बजाने की रिवायत शुरू हुई है।
विवाह के संस्कार और प्रकार:
भीलों में विवाह के भी अनेक प्रकार होते हैं,जैसे-
हरण-विवाह: इस प्रकार के विवाह में लड़की को भगाकर विवाह किया जाता है।
परीक्षा-विवाह : इस विवाह में पुरुष को अपने साहस का प्रदर्शन करना होता है।
क्रय-विवाह: वर-वधु का मूल्य चुकाकर किया जाने वाला विवाह।
इसके अतिरिक्त सेवा और हट-विवाह का प्रचलन भी है।
भगोरिया हाट-उत्सव जहाँ भगोरिया देव की पूजा है वहीँ यह भील युवक-युवतियों को जीवन साथी चुनने का अवसर भी देता है। इस दौरान युवक अपने पसंद की युवती के गाल पर गुलाल लगाकर अपने प्रस्ताव का इजहार करता है, यदि युवती इस प्रस्ताव को स्वीकार करती है तो वह गुलाल लगा रहने देती है अन्यथा वह गुलाल पोंछकर अपनी अपनी असहमति ज़ाहिर कर देती है।
त्यौहार:
भील-समुदाय कई त्यौहार मनाता है। भीलों द्वारा मनाये जाने वाले त्यौहार राखी, दिवाली, होली आदि हैं। वे कुछ पारंपरिक त्योहार भी मनाते हैं। अखातीज, दीवा( हरियाली अमावस)नवमी, हवन माता की चालवानी, सावन माता का जतरा, दीवासा, नवाई, भगोरिया, गल, गर, धोबी, संजा, इंदल, दोहा आदि। कुछ त्योहारों के दौरान विभिन्न स्थानों पर कई आदिवासी मेले लगते हैं। नवरात्रि मेला, भगोरिया मेला (होली के त्योहार के दौरान)
नृत्य और उत्सव:
भीलों के मनोरंजन का मुख्य साधन लोक गीत और नृत्य हैं। महिलाएं जन्म उत्सव पर नृत्य करती हैं, पारंपरिक भोली शैली में कुछ उत्सवों पर ढोल की थाप के साथ विवाह समारोह करती हैं। उनके नृत्यों में लाठी-नृत्य, गवरी/राई, गैर, द्विचकी, हाथीमना, घुमरा, ढोल नृत्य, विवाह नृत्य, होली नृत्य, युद्ध नृत्य, भगोरिया नृत्य, दीपावली नृत्य और शिकार नृत्य शामिल हैं। वाद्ययंत्रों में हारमोनियम , सारंगी , कुंडी, बाँसुरी , अपांग, खजरिया, तबला , जे हंझ , मंडल और थाली शामिल हैं। वे आम तौर पर स्थानीय उत्पादों से अपने वाद्य-यंत्र बनाते हैं।
भील लोकगीत
1.सुवंटिया - (भील स्त्री द्वारा)
2.हमसीढ़ो- भील स्त्री व पुरूष द्वारा युगल रूप में गाते हैं।
असल में यही भौगोलिक परिस्थितियां, रीति-रिवाज़, मान्यताएं, तीज-त्यौहार, देवी-देवता यही इनकी जीवन शैली को, इनकी गाथाओं को, इनकी कलात्मक संस्कृति को आकार देती है। इन्हीं सब में इनकी कला और संस्कृति छिपी हुई है। इसे हटाकर हम इनकी कला-यात्रा को समझ ही नहीं सकते। इनकी आदिवासी कलाओं में सिर्फ आनंद ही नहीं है, बल्कि एक अलग तरह का प्राकृतिक रहस्य है। प्रकृति के लिए प्यार है और इन्ही की हस्तशिल्प कृतियाँ लोक-कला, लोक-संस्कृति के क्षेत्र में अंतराष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहचान बना रही हैं । जिसमें झाबुआ के भील-समुदाय से निकली लोक-चित्रण और गुड़िया-कला प्रमुख है। यहाँ हम झाबुआ मध्यप्रदेश के भील आदिवासियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहेंगें जिन्होंने पिथौड़ा-लोकचित्रण को ख्याति दिलवाई।
पिथौड़ा-लोकचित्रण:
भील-समुदाय में प्रति वर्ष दीवारों पर लेप किया जाता है और उन्हें उभरी हुई नक्काशीकारी, मिट्टी चित्र तथा चित्रकारियों से सजाया जाता है। झबुआ के भीलों के बीच पिथौड़ा चित्रकारी एक धार्मिक रीति होती है । पिथौड़ा कला में बड़वा जो की पुजारी के समान है वह कथा कहता है और एक परंपरागत चित्रकार जिसे लेखिन्द्र कहा जाता है वह घर के भीतर की दीवारों पर बड़वा की कथा के अनुसार चित्र बनाता जाता है जिसे देवों को अर्पित किया जाता है। इस सम्बन्ध में एक कहानी प्रचलित है, धर्मी राजा के शासन में लोग हंसना, गाना और नृत्य करना भूल गए थे। तब राजकुमार पिथौड़ा ने देवी हिमाली हर्दा के निवास स्थान तक घोड़े पर सवार हो कर यात्रा की। देवी ने उनकी हंसी, गीत तथा नृत्य उन्हें वापस लौटा दिया। पिथौड़ा भित्ति चित्रकारियों में भीलों की उत्पत्ति की पौराणिक गाथा को चित्रित किया जाता है।
चित्रांकन की अनुष्ठानिक परम्परा पिथौड़ा का प्रारम्भ भीलों के राठवा समुदाय से माना जाता है, जो ज़्यादातर राजस्थान और गुजरात में वास करते हैं।
पारम्परिक रंग और तूलिका:
उनकी चित्रकारी की सामग्री साधारण रूप से, घर में निर्मित होती है-रंगों को विभिन्न पौधों की पत्तियों तथा फूलों से तैयार किया जाता है। फिर फटे-पुराने कपड़ों अथवा कपास के फाहों से बने ब्रशों से पोता जाता है जो नीम की टहनियों से बंधे होते हैं। भील-समुदाय में घोड़े का बहुत महत्व है वे अपनी मनौतियां पूर्ण होने, शुभ-प्रसंगों के आरम्भ पर तथा रक्षा, समृद्धि, और मुक्ति के लिए अपनी मान्यताओं के अनुसार घोड़े बनाकर चित्रित करते हैं। भील-समुदाय अपने जीवन से जुड़ा प्रत्येक पहलू अपने चित्रों में उकेरते हैं-सूर्य, चंद्र, पशु, वृक्ष, कीट, नदियां, मैदान, पौराणिक व्यक्ति, देवता भीलवत देव बरमथ्य जिनके बारह सिर हैं, एकलव्य जिनका केवल एक ही पैर है। वे अपनी चित्रकला में बिंदुओं का अदभुद प्रयोग करते हैं।
भूरी बाई:
पारम्परिक रूप से पिथौरा चित्रकला महिलाओं के लिए निषेध रही थी लेकिन भूरी बाई ऐसी पहली भील-महिला कही जाती हैं जिन्होंने न सिर्फ पिथौरा कला को आत्मसात किया बल्कि अन्य कई महिलाओं को चित्रकला के लिए प्रेरित किया। भूरी बाई 1980 में जब मजदूरी करने के उद्देशय से भोपाल आयीं थीं तब जगदीश स्वामीनाथन ने उन्हें चित्रकारी करने के लिए प्रेरित किया। भोपाल ही वह जगह थी जहाँ उन्होंने पहली बार कागज़, कैनवास और चटक आयल-पेस्टल रंगों के स्पर्श से आह्लादित अनुभव किया। आज भूरी बाई एक अंतराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त कलाकार हैं जो मध्यप्रदेश के सर्वोच्च सम्मान, शिखर सम्मान, अहिल्या पुरूस्कार, रानी दुर्गावती अवार्ड और हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित हुई हैं।
पेमा फत्या:
झाबुआ जिले के भाभरा गाँव के रहवासी पेमा फत्या ने, भील पिथौरा कला को जन-जन तक पहुँचाकर इस कला से जुड़े कलाकारों के लिए सम्मान और पहचान के नए द्वार खोले। अस्सी के दशक में झाबुआ के कलेक्टर रहे जी. गोपालकृष्णन की पहली नज़र पेमा फत्या के चित्रों पर पड़ी तो वे उनकी कला के कायल हो गए। जी. गोपालकृष्णन ने पेमा को कलेक्ट्रेट के लिए एक पेंटिंग बनाने का काम सौंपा और इसके लिए उन्हें पांच हज़ार रुपये मेहनताना भी दिया गया। पेमा की इस पेंटिंग को उन्होंने एक प्रदर्शनी में भी भेजा और पेंटिंग को राज्य स्तर के दो पुरस्कार मिले। उनकी इस प्रदर्शनी में हिस्सेदारी एक ज़रिया बनी जे.स्वामीनाथन जैसे कला-पारखी से मुलाकात की। पेमा फत्या ने भारत-भवन के लिए पेंटिंग कार्य तो किया लेकिन भोपाल आकर बसने से इंकार किया। शुरुआत में अपने पिता से पेंटिंग सीखने वाले पेमा फत्या के कला-गुरु भाभरा के लेखिन्द्र रामलाल छेदला रहे। लकवा जैसी बीमारी को हराकर भी वे लगातार पेंटिंग बनाने कार्य करते रहे। उन्होंने अपनी इस धरोहर को सँभालने और आगे बढ़ाने के लिए विधिवत रूप से अपने भतीजे थावर सिंह प्रशिक्षित किया।
1986 में उन्हें राष्ट्रीय तुलसी पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था। अभी हाल ही में 31 मार्च 2020 को उनका निधन हो गया।
प्रसिद्ध भील कलाकार:
अनीता बारिया, छेर की भूरी बाई, गंगू बाई, जोर सिंह, लाडो बाई, रमेश कटारिया, शेर सिंह, सुभाष भील आदि कई सम्मानित भील कलाकार हैं, जो अपनी इस पारम्परिक कला को आगे बढ़ा रहे हैं।
कला और आजीविका:
ज़्यादातर आदिवासी विकास की नयी व्यवस्था में पिछड़ गए हैं, उनसे उनके नैसर्गिक आवास और सम्पदाएँ छीन ली गयीं हैं। शिक्षा और आधुनिक जीवन के तौर-तरीकों से उनकी दूरी, उनके जीवन-यापन के लिए एक बड़ा संकट बन चुकी है। ऐसे में अपनी लोक-कलाओं के ज़रिये अपने जीविकोपार्जन के रास्ते तलाशते ये कलाकार, राज्य और कला-प्रेमियों से जिस संरक्षण और सम्मान के हक़दार हैं वह अभी भी उनसे दूर है। 1986 में राष्ट्रीय तुलसी पुरूस्कार से सम्मानित होने के बाद पेमा फत्या ने भी कहा था कि सरकार को अन्य लोक-कलाकारों के जीवन यापन और सम्मान के लिए पुरूस्कार के अलावा अन्य कदम भी उठाने चाहिए।
http://ignca.gov.in/hi/divisionss/janapada-sampada/tribal-art-culture/adivasi-art-culture/the-bhils/
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